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भारतीयता को मिली नई संजीवनी, चुनौतियों के बीच बनता नया इतिहास; एक्सपर्ट व्यू ब्रिटेन में ऋषि राज

आधुनिक दौर में शासन व्यवस्था के लिए लोकतंत्र को सर्वाधिक बेहतर माना जाता है। लोकतंत्र की आवश्यक शर्त व्यवस्था का सेक्युलर होना है। सांप्रदायिक होने का ठप्पा लगने के डर से शासन व्यवस्था से जुड़े लोग अब तक मंदिरों में जाने से परहेज करते थे।

आधुनिक दौर में शासन व्यवस्था के लिए लोकतंत्र को सर्वाधिक बेहतर माना जाता है। लोकतंत्र की आवश्यक शर्त व्यवस्था का सेक्युलर होना है। सांप्रदायिक होने का ठप्पा लगने के डर से शासन व्यवस्था से जुड़े लोग अब तक मंदिरों में जाने से परहेज करते थे।

उमेश चतुर्वेदी। भारतीय स्वाधीनता आंदोलन के चरम पर पहुंचने के बाद वर्ष 1932 में ऐसा महसूस किया जा रहा था कि भारत को गुलाम बनाने वाली ब्रिटिश सरकार को भारतीय स्वाधीनता सेनानियों से समझौता करना पड़ेगा। तब ब्रिटिश संसद में एक समिति गठित की गई थी, जिसे भारत में संवैधानिक सुधारों को लागू करना था। उसके सम्मुख प्रस्तुति के लिए तब के एक ब्रिटिश सांसद ने छह पृष्ठों का एक दस्तावेज तैयार किया था, जिसमें उन्होंने भारत और भारतीयों के बारे में लिखा था, ‘वे जानवर जैसे लोग हैं और उनका धर्म भी पशुओं जैसा है।’ उन्होंने तब भारत के बारे में कहा था कि भारत न एक देश है या राष्ट्र है, यह एक महाद्वीप है, जिसमें कई देश बसे हुए हैं।’

अपने इन तर्कों के जरिए भारत के प्रति अपनी घृणा को जाहिर करने वाले नेता थे विंस्टल चर्चिल, जो बाद में ब्रिटेन के प्रधानमंत्री भी बने। भारत और भारतीयों पर जाहिर इन विचारों ने 90 वर्षों की यात्रा पूरी कर ली है। इस बीच समय चक्र लगभग पूरी तरह घूम चुका है। चर्चिल के इन विचारों का जवाब कहेंगे या फिर संयोग, उनकी ही टोरी पार्टी को अपनी अगुआई के लिए उसी भारतीय रक्त पर विश्वास करना पड़ा है, जिसे लेकर उसके ही एक पूर्वज में गहरे तक घृणा बैठी हुई थी।

ऋषि सुनक के दादा अविभाजित भारत के गुजरांवाला के निवासी थे

आर्थिक बवंडर के दरिया में हिचकोले खा रही ब्रिटिश नौका को खेने और उसे पूरी सुरक्षा के साथ किनारे लगाने को लेकर जिस व्यक्ति पर ब्रिटिश टोरी पार्टी को विश्वास जताना पड़ा है, उसकी रगों में वही भारतीय रक्त स्पंदित हो रहा है, जिसे विंस्टन चर्चिल देखना तक पसंद नहीं करते थे। ऋषि सुनक के दादा अविभाजित भारत के गुजरांवाला के निवासी थे। जिस समय विंस्टन चर्चिल भारत के बारे में अपनी कुख्यात राय जाहिर कर रहे थे, उसके ठीक तीन साल बाद ऋषि के दादा बदहाल भारतीय धरती को छोड़ रोजी-रोटी की तलाश में अफ्रीकी देश कीनिया पहुंच गए थे। बाद में वे ब्रिटेन आए और यहां के साउथम्प्टन शहर में डेरा जमाया और गृहस्थी खड़ी की।गुलाम भारत से दरबदर हुए इस परिवार ने शायद ही सोचा होगा कि उसके चिराग से रोशनी की उम्मीद वह ब्रिटेन लगा बैठेगा, जिसके राज में कभी सूरज नहीं डूबता था।

मध्यकालीन इतिहास में भारत से बाहर अपना राज विस्तार करने वाले कुछ चरित्रों की जानकारी मिलती है। कनिष्क और फुआन नाम के राजाओं ने विदेशी धरती तक अपना साम्राज्य फैलाया था। इन्होंने अपना राजकाज ईरान, उजबेकिस्तान से लेकर अफगानिस्तान और दक्षिणी पूर्वी एशिया तक पहुंचा दिया था। तब का दौर तलवारों के दम पर राज स्थापित करना था। लेकिन आज का दौर लोकतंत्र का है। लोकतांत्रिक समाज में जिसे जनता चुनती है, वही उनका भाग्यविधाता बनता है।

ऋषि सुनक का परिवार तीन पीढ़ियों से भारतीय धरा से दूर

ऋषि सुनक इन अर्थों में अतीत के राजाओं की तुलना में कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण हैं। ब्रिटिश शासन व्यवस्था के चलते पूरी दुनिया में एक और बात हुई। शासन की छत्रछाया के तले शासित इलाकों में ईसाइयत का भरपूर प्रसार हुआ। दुनियाभर में ईसाई मिशनरियों ने अपने धर्म का विस्तार खूब किया। भारत में मतांतरण की घटनाएं सामने आती हैं तो उनके पीछे ज्यादातर ईसाई मिशनरियों की ही भूमिका नजर आती है। ईसाइयत का प्रमुख केंद्र ब्रिटेन है। उसी ब्रिटेन की अगुआई अब एक हिंदू कर रहा है। ऋषि सुनक का परिवार तीन पीढ़ियों से भारतीय धरा से दूर है, परंतु उसने अपना धर्म नहीं बदला। सुनक परिवार अब भी आस्थावान हिंदू है। ऋषि सुनक बचपन से साउथम्पटन के मंदिर की सेवा करते रहे हैं। उनके पिता अब भी वहां के एक मंदिर के ट्रस्ट में सदस्य हैं। पूर्व में बोरिस जानसन के ब्रिटेन के प्रधानमंत्री पद से त्यागपत्र के बाद जब कंजरवेटिव पार्टी अपने नेता की खोज में लगी थी, तब भी ऋषि सुनक ने अपनी दावेदारी प्रस्तुत की थी। उस समय उन्होंने लंदन के कई मंदिरों में पूजा-अर्चना भी की थी।

यह बात और है कि लोकतंत्र की वर्तमान व्यवस्था के उत्स देश ब्रिटेन या अमेरिका में जो पंथनिरपेक्ष लोकतांत्रिक व्यवस्था है, उसके बारे में कह सकते हैं कि वह बाइबिल हाथ में लेकर आगे बढ़ने वाला सेक्युलर लोकतंत्र है। परंतु वहीं से भारत आए सेक्युलर लोकतंत्र को हिंदुत्व से परहेज रहा है। ऐसे ब्रिटेन में अगर एक ऐसे नेता को शासन की कमान मिलती है, जो हिंदुत्व के प्रति पूरी तरह प्रतिबद्ध हो, जिसे पूजा-पाठ से परहेज न हो, बल्कि वह उसमें रुचि लेता हो, तो निश्चित तौर पर यह क्रांतिकारी घटना मानी जाएगी। कुछ पश्चिमी विचारकों का मानना है कि 21वीं सदी में ईसाइयत और इस्लाम के बीच संघर्ष है। इसमें

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