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जब कैलाश सत्यार्थी को मिला था शांति का नोबेल पुरस्कार, जानें क्यों नाम से हटा ली थी जाति

कैलाश जी में शुरू से ही इसे लेकर एक विद्रोह की मन:स्थिति रहती थी। फिर चाहे वो घर में आने वाली मेहतरानियों को रोटी फेंककर देने की बात हो या दलितों को मंदिर से दूर रखने की।

10 अक्‍टूबर... जब कैलाश सत्यार्थी को मिला था शांति का नोबेल पुरस्कार, जानें क्यों नाम से हटा ली थी जाति

यह मेरी दिनचर्या के रोज के दिनों जैसा ही एक दिन था। मैं मध्‍य प्रदेश के गुना जिले के एक कॉलेज में क्‍लास लेने के बाद टीचिंग स्‍टाफ के रूम में बैठा था। कुछ सोच ही रहा था कि फोन की घंटी ने मेरी सारी एकाग्रता तोड़ दी। मैंने फोन उठाकर हैलो बोला… उधर से बोलने वाला नोबेल मिल गया…नोबेल मिल गया… कहकर चिल्‍लाने लगा। मैं कुछ समझ ही नहीं पाया। मैंने फिर पूछा… क्‍या नोबेल… किसे मिल गया? अब फोन के दूसरे छोर पर मौजूद व्‍यक्ति ने कहा, ‘अरे कैलाश सत्‍यार्थी को नोबेल शांति पुरस्‍कार देने की घोषणा हो गई है।’ अब चौंकने की बारी मेरी थी। मैंने इधर-उधर देखा तो कुछ और आंखें मेरी ओर ही थीं। मैंने कुछ बोलना चाहा लेकिन मुंह से आवाज ही नहीं निकली। थोड़ी देर मैं यूं ही खड़ा रहा, कट चुके फोन का रिसीवर लेकर। फिर एक-एक कर लोग मुझे बधाई देने लगे और मैं बुत सा बना सबकी बधाई लेता रहा।

आज 10 अक्‍टूबर के दिन बरबस ही ये सब मुझे क्‍यों याद आ रहा है। ये सोचते हुए मैं और भी कई यादों के भंवर में खो जाता हूं। दरअसल, जिन कैलाश सत्‍यार्थी को 10 अक्‍टूबर, 2014 को नोबेल शांति पुरस्‍कार देने की घोषणा की गई थी वह कोई और नहीं बल्कि रिश्‍ते में मेरे चाचा लगते हैं। वैसे मैं उनसे तीन साल ही छोटा हूं, इसलिए हमारे बीच चाचा-भतीजा से ज्‍यादा रिश्‍ता ‘दोस्‍त’ जैसा ही रहा। मैं ही नहीं बल्कि पूरे विदिशा जिले में ही सभी लोग उन्‍हें ‘दद्दा’ कहकर संबोधित करते हैं। हमने एक साथ स्‍कूल में कई साल साथ गुजारे। आपसी लड़ाई-झगड़े, खेलकूद और शिकायतों की एक लंबी फेहरिस्‍त है, जो अब भी कल की तरह ताजा हो जाती हैं। कभी-कभी सोचता हूं कि जिन कैलाश सत्‍यार्थी को मैं बचपन से जानता हूं, वो तो था ही नोबेल विजेता बनने के काबिल। किशोरावस्‍था से ही कैलाश जी घर से लेकर बाहर होने वाले अन्‍याय के खिलाफ विरोधी तेवर रखते थे। मैंने उनकी इन आदतों को बचपन से देखा है। ब्राहृमण परिवार में जन्‍म लेने के
नाते हम शुरू से ही छुआछूत और जाति प्रथा को समझते थे।

कैलाश जी में शुरू से ही इसे लेकर एक विद्रोह की मन:स्थिति रहती थी। फिर चाहे वो घर में आने वाली मेहतरानियों को रोटी फेंककर देने की बात हो या दलितों को मंदिर से दूर रखने की। कभी-कभी लगता है कि कैलाश जी को शायद ईश्‍वरीय वरदान था कि उन्‍हें सामाजिक बुराइयों के खिलाफ लड़ना है। यह साल 1969 की बात है। देश में महात्‍मा गांधी जी की जन्‍म शताब्‍दी मनाई जा रही थी। उस समय कैलाश जी की उम्र 15 साल थी। हम दोनों ज्‍यादातर साथ-साथ रहते थे। उस समय शहर के चौराहे पर एक कार्यक्रम में नेताजी छुआछूत और जात-पात को लेकर जोरदार भाषण दे रहे थे। हम भी वहां थे। नेताजी की बातों से प्रेरित होकर कैलाश जी के मन में विचार आया कि क्‍यों न एक ऐसे भोज का आयोजन किया जाए, जिसमें मेहतरानियां(मैला ढोने वाली) भोजन बनाएं और ऊंची जाति के लोग उस भोजन को अन्‍य जातियों के साथ ग्रहण करें।

कैलाश जी ने अपने दोस्‍तों के साथ चंदा एकत्र कर सारी व्‍यवस्‍था की। मेहतरानियों ने आकर खाना बना दिया। अब इंतजार था उच्‍च जातियों के लोगों का और खासकर उन नेताजी का। गांधी पार्क में हो रहे इस आयोजन में इंतजार करते-करते रात के 10 बज गए लेकिन न नेताजी आए और न ही उच्‍च जाति के लोग। कैलाश जी के चेहरे पर उभरी निराशा थोड़ी देर बाद गुस्‍से में और फिर आंसुओं की शक्‍ल में निकल पड़ी। उत्‍सव जैसा माहौल गमगीन हो चुका था। एक खामोशी सी छाई हुई थी। थोड़ी देर बाद कैलाश जी ने आगे बढ़कर थाली उठाई और गांधी जी की प्रतिमा के नीचे बैठकर खाने लगे। आंखों से आंसु टपक रहे थे और हाथ में ‘कौर’ था।

मेहतरानियों ने कैलाश जी से कहा, ‘बेटा तूने तो हमारी इज्‍जत बढ़ाने के लिए वह काम कर दिया, जो कभी किसी ने नहीं किया। तुझे तो खुश होना चाहिए।’ इसके बाद उन मेहतरानियों ने वहां मौजूद सभी बच्‍चों के साथ खाना खाया। सभी को लगा कि चलो जो भी था अच्‍छा रहा। लेकिन असली कहानी तो शुरू होनी थी घर जाने के बाद। इसका कैलाश जी को अंदाजा ही नहीं था। रात के सन्‍नाटे में वे पैदल-पैदल घर की ओर बढ़ रहे थे। घर का माहौल एक अलग ही शक्‍ल धारण किए हुए था। ब्राहृमण समुदाय के तमाम लोग और पंडित तमतमाए चेहरों के साथ कैलाश जी को घूर रहे थे। मानो वह कोई गंभीर अपराध करके आए हों। हालांकि कैलाश जी इन सबसे बिना विचलित हुए एक तरफ खड़े थे।

अब लड़ाई आमने-सामने की थी, एक तरफ कैलाश जी और दूसरी तरफ धर्म के ठेकेदार। पंडितों ने फैसला सुना दिया कि कैलाश जी को हरिद्वार जाकर गंगा में स्‍नान करना होगा और वहां से आने के बाद ब्रहृम भोज करवाना होगा। ब्राहृमणों के पैर धोकर पानी भी पीना होगा। ऐसा न करने पर कैलाश जी को जाति से बाहर करने की भी धमकी दी गई। हर कोई अवाक था, खासकर कैलाश जी के परिजन, क्‍योंकि वे कैलाश जी के स्‍वभाव को जानते थे। कैलाश जी ने धर्म के ठेकेदारों की बात को मानने से साफ इनकार कर दिया। साथ ही उन्‍होंने कहा, ‘तुम क्‍या मुझे जाति से निकालोगे, मैं खुद ही अपने नाम से जाति निकाल दूंगा।’ पंडितों के दबाव में परिजनों ने घर के बाहर एक छोटे कमरे में कैलाश जी के रहने की व्‍यवस्‍था कर दी। उनकी मां उनके कमरे के बाहर ही एक थाली में भोजन रख देती थीं।

इस घटना से छुआछूत और जाति प्रथा के प्रति कैलाश जी का विरोध और मजबूत हो गया। कैलाश जी ने तय किया कि वह अपने नाम से जाति ही हटा देंगे। इस तरह कैलाश जी ने अपने नाम से ‘शर्मा’ उपनाम हटाकर ‘सत्‍यार्थी’ जोड़ दिया। ‘सत्‍यार्थी’ का अर्थ होता है ‘सत्‍य की तलाश करने वाला’। इस तरह वह कैलाश शर्मा से कैलाश सत्‍यार्थी बन गए। कभी-कभी सोचता हूं कि एक 15 साल का लड़का किसी सामाजिक बुराई को खत्‍म करने के लिए इतना दृढ़निश्‍चयी कैसे हो सकता है? इस उम्र में तो खेलने-कूदने, शैतानी करने और घूमने-फिरने की ही बातें होती हैं। फिर लगता है कि शायद मैं सौभाग्‍यशाली था कि कैलाश जी के इस संघर्ष का गवाह बना। ऐसी अनेक घटनाएं रहीं, जब कैलाश जी विरोध करने से पीछे नहीं हटे। कैलाश जी आर्य समाज से भी जुड़े थे। एक बार उन्‍होंने प्रस्‍ताव रखा कि हर हफ्ते होने वाले हवन को दलितों के घर पर भी करना चाहिए न कि केवल मंदिरों या उच्‍च जाति वालों के घर में।

कैलाश जी का मानना था कि इससे स्‍वामी दयानंद सरस्‍वती के समाज में समरसता फैलाने के सपने को पूरा करने में मदद मिलेगी। लेकिन धर्म के ठेकेदार यहां भी कुंडली मारकर बैठे थे, कैलाश जी की बात को नहीं माना गया। इसके बाद कैलाश जी ने अपने गृह जिले विदिशा में एक आर्य समुदाय की स्‍थापना की और दलितों के घर में पूरे रीति-रिवाज से हवन की शुरुआत की। ऐसा ही एक प्रकरण राजस्‍थान का भी याद आ रहा है। राजसमंद जिले में नाथद्वारा मंदिर में दलितों के प्रवेश पर प्रतिबंध था। कैलाश जी ने इसकेखिलाफ कानूनी लड़ाई लड़ी। इस दौरान उन पर जानलेवा हमला भी हुआ। कानूनी लड़ाई जीतने के बाद उन्‍होंने दलितों के साथ पूरे धार्मिक रीति-रिवाज से पूजा की।
(लेखक डॉ. भीमराव अंबेडकर सामाजिक विज्ञान विश्वविद्यालय, इंदौर में कुलपति हैं। सभी  विचार उनके निजी हैं।)

 

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