गुजरात में ‘दलितों और आदिवासियों’ को पुलिस सुरक्षा की क्यों पड़ रही है ज़रूरत?
- सूचना के अधिकार के तहत बीबीसी गुजराती को मिली जानकारी के अनुसार, बीते 11 सालों में गुजरात के विभिन्न ज़िलों में 2,789 ऐसे मामले सामने आए हैं जिसमें किसी दलित या आदिवासी परिवार को पुलिस सुरक्षा की ज़रूरत पड़ी है.
- इसका मतलब ये है कि गुजरात में हर दूसरे दिन एससी या एसटी परिवारों को पुलिस सुरक्षा की ज़रूरत पड़ती है.
- इन वर्षों के दौरान राज्य सरकार ‘सुरक्षित गुजरात‘ की एक छवि बनाने में लगी रही और ये भी दावा करती रही कि राज्य में क़ानून-व्यवस्था की स्थिति कहीं अच्छी है.
- जानकारों की नज़रों में ये आंकड़े वास्तविकता से कहीं कम हैं.
“28 जून 2022 को मेरे पड़ोसी ने नशे की हालत में मेरे बुज़ुर्ग माता-पिता, मेरी पत्नी और बच्चे पर एक डंडे से हमला किया. ये हमला बहुत गंभीर था जिसमें मेरे पिता को फ्रैक्चर हो गया. हमने अनुसूचित जाति/जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम 1989 के तहत पुलिस में शिकायत दर्ज की और सुरक्षा की मांग की है.”
हलोल तालुका के 41 वर्षीय विजय धुलाभाई मकवाना ने अपने परिवार पर हुए हमले के बारे में ये बताया.
गुजरात की सरकार ने बीते कई सालों के दौरान ‘सुरक्षित गुजरात’ की एक छवि बनाने की कोशिश की है. साथ ही वहां की सरकार ने हमेशा ये दावा किया है कि क़ानून-व्यवस्था के मामले में ये राज्य कहीं बेहतर स्थिति में है.
लेकिन बीबीसी गुजराती ने सूचना के अधिकार क़ानून के तहत एक आरटीआई एप्लिकेशन दी थी जिसमें मिली जानकारी में ये सामने आया कि बीते 11 वर्षों के दौरान गुजरात के विभिन्न ज़िलों में दलित और आदिवासी परिवारों को अक्सर पुलिस सुरक्षा लेनी पड़ी है. बीते 11 सालों के दौरान ऐसे 2,789 मामले सामने आए जिसमें पुलिस सुरक्षा की ज़रूरत पड़ी.
दलित और आदिवासी मामलों के सामाजिक कार्यकर्ताओं का कहना है कि ये आंकड़े इस बात का संकेत हैं कि गुजरात में दलित-आदिवासी परिवारों की सुरक्षा की स्थिति अच्छी नहीं है.
बीबीसी गुजराती ने आरटीआई में मिले इन आंकड़ों को लेकर गुजरात सरकार के गृह मंत्री हर्ष सांघवी की प्रतिक्रिया लेने की कोशिश की लेकिन उनसे संपर्क नहीं हो सका.
बीबीसी गुजराती ने सामाजिक कार्यकर्ताओं और पूर्व पुलिस अधिकारियों से बात कर यह समझने की कोशिश की कि ये आंकड़े गुजरात की क़ानून-व्यवस्था के बारे में क्या कहते हैं?